Sunday, September 11, 2016

द होम एंड द वर्ल्ड


सितंबर महीने की पहली किताब थी - रबिन्द्रनाथ टैगोर की लिखी 'द होम एंड द वर्ल्ड'। यूं तो टैगोर का नाम सभी ने सुना है। गीतांजली के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। उनका लिखा गीत 'जन गण मन' हमारा राष्ट्रगान बना और उन्हीं का लिखा एक और गीत 'आमार शोनार बांग्ला' पाकिस्तान के विभाजन के बाद बने नए देश बांग्लादेश का भी राष्ट्रगान बना। शायद टैगोर एकमात्र ऐसे कवि होंगे जिनके लिखे गीत एक नहीं बल्कि दो देशों के राष्ट्रगान बने। उन्होनें अपने लिखे गीतों को संगीत-बद्ध किया और इस संगीत को हम सभी रबिन्द्र-संगीत के नाम से जानते हैं। उन्होनें कोलकाता से 160 किलोमीटर पर एक छोटा-सा क़स्बा बसाया - 'शांति निकेतन' जो आज 'विश्व-भारती विश्वविद्यालय' के रूप में मौजूद है। मशहूर अर्थशास्त्री 'अमर्त्य सेन' शांति निकेतन के एक स्कूल से पढे हैं और आगे चलकर विश्वभारती विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने। 

टैगोर के बारे में मैंने सबसे पहले अनन्या बाजपेयी की लिखी Righteous Republic में पढ़ा था। अमूमन हमारे महापुरुषों के बारे में जो किताबें हमारे इर्द-गिर्द पढ़ने को मिलतीं हैं, उनके जीवन की घटनाओं तक सीमित रह जातीं हैं। अनन्या बाजपेयी की किताब इस मामले में अलग थी कि इसमें इन विराट-व्यक्तित्वों की विचार-प्रणाली की पड़ताल को आधार बनाया गया था। अंबेडकर जैसे थे वैसे वे क्यों थे? गांधी, नेहरू और टैगोर जैसे थे वैसे क्यों थे? महीनों बाद एक सफर के दौरान रेल्वे-प्लैटफ़ार्म के एक स्टॉल से 'टैगोर की प्रसिद्ध कहानियाँ' नाम की एक किताब खरीदी। उनकी लिखावट का मैं पहली ही बार में कायल हो गया। एक बार तो बंगाली सीखने का भी ख़याल आया टैगोर को ओरिजिनल में पढ़ने के लिए। लेकिन फिर मैं ट्रांसलेटेड वर्ज़न्स पर सेटल हो गया। 

टैगोर कभी भी राष्ट्रवादी नहीं थे। उनके हमेशा गांधी से वैचारिक मतभेद रहे। 'द होम एंड द वर्ल्ड' उपन्यास की जो पृष्ठभूमि है वो तात्कालीन बंगाल की है जब स्वदेसी आंदोलन चल रहा था। इस किताब को पढ़ते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसमें जो माहौल दिखाया गया है ये उपन्यास लिखे जाते समय वर्तमान था। इतिहास की सरकारी किताबों में इन आंदोलनों का जो पहलू मिलता है वह ये कि लोग समूहों में इकट्ठे हो कर अपनी विदेशी-वस्तुओं को आग के हवाले कर दिया करते थे। इन किताबों में उन घटनाओं को जिस भी तरह महिमामंडन किया जाये लेकिन इस उपन्यास में उस राजनीति का माइक्रो-लेवल पर एक्ज़ीक्यूशन दिखाया है। राष्ट्रवाद के उन्माद में तमाम छोटे-छोटे दल बन गए थे जो लोगों से उनका सामान छीन-छीन कर जला दिया करते थे। दरअसल ये कुछ उसी तरह था जैसे आज के समय में तमाम राजनीतिक दल बंद का आयोजन करते हैं। बंद की घोषणा राजनीतिक पार्टियां करतीं हैं और फिर उन्हीं के समर्थक सड़कों पर उतर कर, बाज़ारों में घूम-घूम कर तमाम दुकानों को बंद करवाते हैं। अगर आप एक दुकानदार हैं तो आप उस बंद आयोजन के समय अपनी दुकान बंद न करने का जोखिम नहीं ले सकते भले ही आप बंद आयोजन करवाने वाले दल की विचारधारा से सहमत हों या ना हों। 'द होम एंड द वर्ल्ड' हमारे दिमागों में एक छवि गढ़ चुके उस आंदोलन का एक दूसरा पहलू पेश करती है और बहुत हद तक कामयाब भी होती है। देश की वर्तमान राजनीति में भी हम अपने ही समाज की इस प्रकृति को पहचान सकते हैं। गायों की सेवा करना या किसी भी प्राणी की सेवा करना, उनका ध्यान रखना, उनको खाने को देना ये सब अच्छा है लेकिन गौरक्षा के नाम पर जब उन्माद होता है तो अखलाक की हत्या हो जाती है। हमारी नीति-सूक्तियों में एक बात कही गई है - 'अति सर्वत्र वर्जयते' (किसी भी चीज़ की अति अच्छी नहीं होती)। टैगोर राष्ट्रवाद के खिलाफ थे। क्योंकि उनके अनुसार राष्ट्रवाद नई पीढ़ी की सोच को एक collective में, एक समूह में बदल दे रहा था जिसमें सबसे पहले व्यक्ति विशेष की सोच पर लगाम लगाई जाती है और collective सोच से भिन्न नज़रिया रखने पर आपको गद्दार करार दिया जाता है। ये collective सोच बढ़ते-बढ़ते अपनी सीमाओं का इस तरह विस्तार करती है कि उसी collective में मौजूद individuals की या इकाइयों की सीमाओं के भीतर अतिक्रमण हो जाता है। तब एक समय आता है कि कलेक्टिव पवित्र बन जाता है, हर बुराई से ऊपर उठ जाता है, और इस तरह किसी भी तरह की आलोचना से भी। उस वक़्त collective कुछ भी कर सकता है। हमारे समय में भी इस बात को कई राजनीतिक दल समझ रहे हैं और अपनी राजनीतिक अभिलाषाओं को धर्म, राष्ट्रवाद और गाय के लबादे में ओढ़ के एक collective बनाने की तैयारी कर रहे हैं। गणतन्त्र की इकाई एक नागरिक होता है। उस इकाई को खत्म कर समर्थकों का एक हुजूम, एक collective तैयार किया जा रहा है। नेता चाहे जो करे नागरिक अब कभी फेसबुक पर, कभी ट्विटर पर, कभी किसी आर्टिकल के कमेन्ट सेक्शन में अपने नेता के समर्थन में नारे लगाता मिल जाता है। दरअसल नागरिक को अब नागरिक रहने ही नहीं दिया जा रहा है। उसे समर्थक बनाना ही उद्देश्य है। और जब तक आप collective के दड़बे में बैठे भेड़-बकरियों की तरह नहीं हो जाते ये प्रक्रिया जारी रहेगी। कभी धर्म का एक दड़बा होगा जिसमें एक मस्जिद गिरा दी जाएगी और देश की भेड़-बकरियाँ अपनी ही संस्कृति के तार-तार होने का जश्न मनाएंगी। कभी एक जाति का दड़बा होगा जिसमें कोई वेमुला अपना वजूद रस्सी पर टांग के चला जाये और भेड़-बकरियाँ इस बात पर नारेबाजी करें कि वो दलित था कि नहीं। कभी कोई पांसरे गोली खाता है, कभी कोई अखलाक मरता है। टैगोर का पक्ष ये था कि भारत की समस्याओं का राजनीतिक समाधान नहीं है। दरअसल मुद्दा सरकार है ही नहीं मुद्दा समाज है। हमें निरक्षरता, अज्ञानता, जातिवाद, सांप्रदायिकता, दलित उत्पीड़न, नारी उत्पीड़न जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए ना कि इसे सरकार बदलने में बर्बाद करनी चाहिए। देश की पहचान उसकी सीमाओं से नहीं उसके लोगों से होती है। अगर लोग अज्ञानता में जीने को अभिशप्त हैं तो किसकी सरकार है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जो अंग्रेजों ने हमारे साथ किया क्या हम कुछ-कुछ वैसा ही कश्मीर के साथ नहीं कर रहे? इरोम शर्मीला के साथ जो हो रहा है क्या वो सही है? क्या हम अपने आदिवासियों के साथ वही नहीं कर रहे जो अंग्रेजों ने कभी किया था? क्या गांवों में सूखा होने पर सरकार कर्जा माफ कर रही है? उनकी मदद कर रही है? नहीं! किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं। क्या अंतर हुआ अंग्रेजों के जाने से अगर आज भी हमारे गावों की हालत लगान के गाँव की तरह है जो सूखे के बावजूद लगान से मुक्त नहीं हो पा रहा था? दरअसल बात ये कभी थी ही नहीं कि किसकी सरकार हो, मुद्दा है कि कैसी सरकार हो और कैसा समाज हो। नेहरू इस बात को समझते थे लेकिन अफसोस उनके बाद कोई दूसरा नेहरू न हो पाया। 

इस किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं।

इस किताब पर सत्यजीत रे ने एक फिल्म भी बनाई थी - 'घरे बाइरे'। ये फिल्म youtube पर इंग्लिश सबटाइटल्स के साथ मिल जाएगी।



Sunday, September 4, 2016

द ग्लास कैसल



अगस्त महीने की आखिरी किताब थी जीनेट वॉल्स की लिखी 'द ग्लास कैसल'। जीनेट वॉल्स एक अमरीकी जर्नलिस्ट हैं और ये उनका लिखा संस्मरण है। एक किताब जो उनके और उनके पिता के रिश्ते के बीच कुछ तलाश करती हुई सीधे दिल में उतरती है और कुछ हद तक उसे तोड़ भी देती है।

इंसान एक परिस्थितिजन्य पुतला है। उसका व्यक्तित्व परिस्थितियों के आसरे परत दर परत बनता चला जाता है। जब हम किसी इंसान से मिलते हैं तो दरअसल हम उसकी ज़िंदगी की तमाम परिस्थितियों से उपजे पूर्वाग्रहों, विचारों, फलसफ़ों, मान्यताओं और नैतिकताओं के समग्र से साक्षात्कार कर रहे होते हैं। जब ये किरदार आपस में एक दूसरे से मिलते हैं तो अपनी-अपनी परतों में कुछ जोड़ते, कुछ घटाते चलते हैं। कई बार अपनी ज़िंदगियों में पीछे मुड़कर देखने पर लग सकता है कि बहुत कुछ बदल सकता था अगर 'उस' मोड पर 'वो' फैसला न लिया होता या 'वो' फैसला ले लिया होता। कुछ सपने मलाल बन के रह जाते हैं और उनमें से कुछ मलाल गुजरते वक़्त के साथ कसक बन के सिर उठाते हैं, टीस पैदा करते हैं।

जीनेट वॉल्स का बचपन मुफ़लिसी में गुज़रा। उनके पिता एक जीनियस थे। गणित, फ़िज़िक्स और लिटरेचर में प्रकांड। अपनी बेटी से बहुत प्यार करने वाले। लेकिन इन सब बातों के साथ ही साथ एक शराबी भी। उनकी माँ जो एक लिटरेचर में रुचि रखने वाली, पेंटिंग करने वाली, आज़ाद ख़यालों वाली, खुले आसमान में उड़ने वाली चिड़िया है वो किसी भी तरह के नियमों में नहीं बंध सकती। नतीजा ये हुआ कि बच्चों को खुद ही अपना और एक दूसरे का ध्यान रखना अपनी उम्र में बहुत पहले ही सीख लेना पड़ा। माँ-बाप दोनों की रुचि पढ़ने में होने की वजह से उनके बच्चों को भी शुरूआत से ही लाइब्रेरी की आदत लग गई। लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी बनती गईं कि बच्चे बेहतर ज़िंदगी के लिए खुद सोचने लग गए और आगे चल कर एक बेहतर ज़िंदगी बना भी सके। वॉल्स के पिता का किरदार किसी फैंटेसी-सा लगता है और पढ़ने वाले के मन में किसी पेंडुलम सा एक फ़िलॉसफ़र से लेकर एक गुड-फॉर-नथिंग के बीच के आयाम में डोलता रहता है। उम्र के अंतिम पड़ाव में जब एक बाप अपने आप से पूछता है कि क्या मैंने अपनी बेटी के लिए कुछ किया है? क्या मैंने उसे सिर्फ निराश किया है? इसका जवाब वो खुद भी जानता है पर शायद किसी उम्मीद में बेटी से भी पूछता है। बेटी भी झूठ नहीं बोलना चाहती और बात टल जाती है। क्या वाक़ई टल पातीं हैं ऐसी बातें? पिता अपनी बेटी को बचपन से ही एक काँच के महल का सपना दिखाता था जिसे वो एक दिन उसके लिए बनाएगा। दोनों घंटों बैठकर उसकी बहुत-सी प्लानिंग करते, खूब सारे नक्शे बनाते, छत पर सोलर एनर्जी पैनल के लिए भी खूब कैल्कुलेशन करते। वही बाप जब मृत्यु शय्या पर लेटे हुए बेटी से कहता है कि मैं तुम्हारे लिए ग्लास कैसल नहीं बना पाया, तब बेटी कहती है - "कोई बात नहीं! लेकिन हमने उसकी प्लानिंग करने में एक शानदार समय गुज़ारा।" तब कहीं इस बात का एहसास होता है कि ज़िंदगी मंज़िल नहीं सफर की खूबसूरती के बारे में है।

एक मर्तबा क्रिसमस पर पैसे न होने पर पिता अपनी बेटी को शहर से दूर ले कर गया और आसमान में उसके साथ निहारते हुए उससे कहा - 'अपना पसंदीदा सितारा चुन लो। इस बार क्रिसमस में तुम्हें तुम्हारा मनपसंद तारा मिलेगा'। जब बेटी ने उससे कहा कि आप किसी को तारा नहीं दे सकते क्योंकि उनका कोई मालिक नहीं है। तब पिता ने कहा - 'उनका कोई मालिक अब तक नहीं है और इसीलिए सिर्फ आपको अपना दावा ठोंकना है, ठीक वैसे ही जैसे क्रिस्टोफ़र कोलम्बस ने अमेरिका पर ठोंका था।' बेटी ने चमकता हुआ वीनस चुन लिया। पिता के मरने के बाद जब कभी बेटी अपनी निजी ज़िंदगी में उदास होती तो शहर की बत्तियों की पहुँच से बाहर निकल आती और अपनी गाड़ी को सड़क के किसी किनारे रोक कर वीनस को ताका करती।

कुछ किताबें अच्छी होतीं है, कुछ बेहद अच्छी लेकिन कुछ किताबें आपको रुला देतीं हैं और उन किताबों के बारे में आप कुछ कह नहीं पाते क्योंकि उन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है। 'द ग्लास कैसल' ऐसी ही एक किताब है जो आपको कभी आपको गुदगुदाती है, कभी रुलाती भी है, कभी दिल भी तोड़ती है लेकिन अंत में आपको speechless कर के छोडती है। 

इस किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं।