Tuesday, June 28, 2016

नारद की भविष्यवाणी




अभी हाल ही में जो क़िताब ख़तम की वो है मनु शर्मा की लिखी 'नारद की भविष्यवाणी'। मनु शर्मा ने कृष्ण की कहानी को आत्मकथात्मक रूप में लिखा है। ये क़िताब 'कृष्ण की आत्मकथा' सिरीज़ का पहला भाग है। लिखने का तरीका मौलिक है। कृष्ण की कहानी टीवी सीरियलों में कई बार देख चुके हैं। लेकिन एक व्यक्तित्व के रूप में उनका चित्रण, माइथोलॉजी की परतों के नीचे दबे एक व्यक्ति की कहानी खोज कर उसे आत्मकथा विधा में लिखना चुनौतीपूर्ण काम है। सबसे महत्वपूर्ण बात भाषा की। आप जब इस तरह की कोई क़िताब लिखते हैं तो भाषा में शुद्ध हिन्दी का ही प्रयोग ज़्यादा करते हैं लेकिन ज़रूरी है प्रवाह होना। शुद्ध हिन्दी भी हो तो ऐसी जो पढ़ने में चिढ़ पैदा न करे। अभी हाल ही में एक क़िताब पढ़ी थी - 'खाली नाम गुलाब का' जो कि ' Il nome della rosa (The Name of the Rose)' नाम की एक इतालवी किताब का हिन्दी अनुवाद थी। मूल कृति के लेखक थे अंबरतों इको जिनका कि अभी फरवरी में देहांत हुआ और जो अंतर्राष्ट्रीय जगत में बेहद मशहूर लेखक हैं। इस किताब में तेरहवीं-चौदहवीं सदी की कैथोलिक राजनीति का बैकड्रॉप था। हालांकि नॉवेल एक मर्डर मिस्ट्री होते हुए भी अपनी क्लिष्ट भाषा की वजह से बोझिल हो गई थी। हालांकि इसकी ज़िम्मेदारी मैं मूल लेखक के बजाए अनुवादक के सिर पर मढ़ता हूँ। अनुवाद करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि मूल कृति के प्रभाव और प्रवाह का भी अनुवाद हो सके। शब्दों को क्लिष्ट करते जाने से अनुवाद प्रामाणिक नहीं हो जाता। ख़ैर, नारद की भविष्यवाणी अनुवाद नहीं है लेकिन भाषा शुद्ध हिन्दी (मुझे इस शब्द से चिढ़ है) होते हुए भी प्रवाहमय है। 
कृष्ण को एक चमत्कारों से इतर मानवीय रूप में प्रस्तुत करना भी एक चुनौतीपूर्ण काम था जो कि लेखक ने बखूबी निभाया। सबसे महत्वपूर्ण लगा लेखक का रिसर्च। जब आप कृष्ण को एक व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं तब चमत्कार अपने आप ख़तम हो जाते हैं। उन चमत्कारों का गैर चमत्कारिक रूप, चाहे वो पूतना का वध हो या गोवर्धन उंगली पे उठाने की घटना हो, बेहद खूबसूरती से खींचा है। तत्कालीन राजनीति में जो एक टेंशन था एक जो तनाव था उसे भी बहुत बखूबी दिखाया गया है, अक्सर ही जो कि नहीं देखने मिलता। बहुत से पात्र ऐसे हैं जिनके योगदान को अगर हटा दिया जाये तो घटनाओं की व्याख्या के लिए चमत्कारों का ही तर्क शेष रह पाता है। लेकिन इन पात्रों ने मथुरा की राजनीति में किस तरह अपना अपना योगदान दिया, ये बहुत अच्छे से लिखा गया है। एक किरदार है छंदक जिसका बेहद ज़बरदस्त चित्रण किया है। एक जगह तो लेखक ने कृष्ण से कहलवाया भी है कि छंदक मेरा पूरक है, मैं सिक्के का एक पहलू हूँ तो छंदक दूसरा। कारागार से कृष्ण की योजना बनाने से लेकर कृष्ण को ईश्वरीय रूप स्थापित कर कंस की सत्ता को हिलाने वाला किरदार छंदक ही था। छंदक कर्म प्रधान किरदार है। कई लोग ऐसे हैं जो नारद की भविष्यवाणी के बाद हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं कि देवकी का आठवाँ पुत्र ही अब जो करेगा वो करेगा, खुद कंस के पिता उग्रसेन भी जिन्हें कंस ने बंदी बना दिया था, लेकिन छंदक नारद पर भरोसा करते हुए भी और कृष्ण को ईश्वर मानते हुए भी कृष्ण के निमित्त सारी योजना बनाता चला गया और उनको सफल बनाने के लिए आकाश पाताल मथुरा और व्रज सब एक करता चला गया। इसके अलावा और भी किरदार है जैसे महामात्य प्रद्योत और उनकी पत्नी महादेवी जो बाद में पूतना के नाम से जानी गई। पूतना का किरदार बहुत खूबसूरती से गढ़ा गया है। पूतना के अंतर्द्वंद्व को इस तरह से उकेरा है कि पाठक खुद को पूतना की जगह खड़ा असहाय महसूस करता है। इसके अलावा कंस का सेनापति अघ, गरगाचार्य, आचार्य श्रुतिकेतु, पूर्व महामात्य प्रलंब, अंधक बाहुक, सुवासिनी, नन्द, राधा और उसके परिवार वाले तमाम किरदार हैं।
मैं खुद एक नास्तिक (atheist) होते हुए भी कृष्ण का ज़बरदस्त fan हूँ। ईश्वर की अवधारणा में यकीन न होने के बावजूद मुझे एक साहित्य के रूप में हिन्दू दर्शन पढ़ना अच्छा लगता है। एक बार प्रभुपाद की गीता पढ़ी थी लेकिन अच्छी नहीं लगी। अच्छी लिखी ही नहीं गई थी। तमाम दक़ियानूसी बातों को व्याख्या के नाम पर घुसेड़ दिया था जैसे कि औरतें स्वभाव से व्याभिचारिणी होती हैं इसलिए आदमियों का उन पर नियंत्रण ज़रूरी है। यहाँ तक कि एक जगह संस्कृत के अनार्य शब्द का हिन्दी में अनुवाद प्रभुपाद ने 'अवांछित संताने' किया था। ख़ैर प्रभुपाद कोई साहित्यकार हैं भी नहीं एक आध्यात्मिक गुरू हैं इस्कॉन के। ख़ैर इस पुस्तक नारद की आत्मकथा में एक लाइन मुझे ठीक नहीं लगी जब लेखक ने कृष्ण से कहलवाया है कि पुरुष राजनीति के लिए उपयुक्त हैं परंतु स्त्रीयों के सामर्थ्य से बाहर है क्योंकि वे स्वभाव से कोमल होती हैं. आज की राजनीति में माग्रेट थेचर, एंजेला मर्केल से लेकर सोनिया गांधी तक सफल महिला राजनीतिक हम देख सकते हैं और इस तरह की सोच को मैं एक पित्रसत्तात्मक पूर्वाग्रह मानता हूँ। लेकिन इस एक जगह को छोड़ कर किसी भी अन्य जगह ऐसी कोई बात नहीं है जो चुभे। राधा का किरदार बहुत खूबसूरती से खींचा है। 

348 पन्नों की ये किताब प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित है। किताब की कीमत 300 रुपये है। पढ़ने लायक कियाब है। किताब Amazon से खरीद सकते हैं। 

Saturday, June 4, 2016

वहम




धड़! धड़! धड़! धड़!

ज़ोर से दरवाज़ा पटकने की आवाज़ हुई. 102 डिग्री बुखार में तपता नीलेश अकेला भीतर कंबल में घुसा लेटा था. रात के कोई साढ़े बारह बज रहे होंगे. बत्ती भी गुल थी. बाहर मॉनसून की झड़ी लगी थी. तीन दिन से बादल थमने का नाम नहीं लेते थे. रूममेट भी घर गया था.

धड़! धड़! धड़! धड़!

"कौन है?"

"पंकज! पीयूष का दोस्त!"

"वो तो घर गया है."

"तुम रूममेट हो उसके?"

"हाँ"

"थोड़ी देर के लिए अंदर आने दो यार. बहुत बारिश है बाहर."

"इतनी रात में कहाँ से कौन आ गया." - बड़बड़ाता हुआ नीलेश अपने कंबल से निकला. हाथ से सिरहाने रखा मोबाइल टटोला और टॉर्च ऑन की.

"थोड़ी देर के लिए बस आ जाने दो"

"हाँ यार! रुको तो! आ रहा हूँ!

आहिस्ते-आहिस्ते कदम बढ़ाते हुए दरवाज़े के नजदीक पहुंचा.

"आओ अंदर" - कहते हुए उसने कुंडी खोल दी. दरवाज़ा खुलते ही छत पर डली तिरपाल की तड़तड़ाहट अंदर आई, उसके पीछे फुहारों को समेटे एक झोंका भी भीतर आया और फिर बस. कुछ नहीं! कहीं कोई न था. नीलेश ने टॉर्च की रोशनी में आजू-बाजू टटोला. जगह-जगह से नालियों के शोर और पाइपों के शोर और टपकते टपकों के शोर के अलावा कहीं कुछ न दिखाई दिया न सुनाई दिया.

कौन था? मैं किससे बात कर रहा था? क्या बुखार से दिमाग चल गया है? कोई प्रेत...?

धड़कनें उछालें मारने लगीं. मन हुआ कि जल्दी से दरवाज़ा बंद कर के फिर अंदर घुस जाये, पर पैर उठते ही न थे. तिरपाल की तड़तड़ाहट कानों को चीरे डाल रही थी. धीरे-धीरे दरवाज़ा उडकाया. हल्के से कुंडी खसकाई गोया खुद कोई चोर हो. तिरपाल की तड़-तड़ मद्धम हुई. तभी लगा कि कानों में किसी के सांस लेने की आवाज़ पड़ी. खुद उसकी सांस बहुत तेजी से चल रही थी लेकिन वो यक़ीनी तौर पर नहीं कह सकता था कि ये आवाज़ उसकी खुद की साँसों की ही थी. तेजी से पूरे कमरे में टॉर्च घुमाई. सारी चीजों ने एक-एक कर अपनी हाज़िरी बजाई. कहीं कोई न दिखा. आखिरी मोमबत्ती कोई आधे घंटे पहले खत्म हो चुकी थी. मोबाइल के बैटरी चेक की. सिर दो डंडियाँ बचीं थीं. टॉर्च लेकिन लगातार जला तो जल्दी खत्म हो सकती थी. लेकिन टॉर्च बंद कैसे कर दे!!

दोबारा अपने बिस्तर पर पहुंचा. कंबल ओढा और हिम्मत जुटा कर टॉर्च बुझा दी. उसे अपने पर शक होने लगा कि उसने आँखें खोल रखीं हैं या बंद की हुई हैं! घुप्प अंधेरा! तभी अचानक बाहर बिजली चमकी. धक! दरवाज़े के पास कौन खड़ा है? जल्दी से मोबाइल टटोला. अनलॉक किया. एप्प की लिस्ट में से टॉर्च सिलेक्ट किया. एक बार फिर रोशनी हुई. फिर कहीं कोई नहीं! हो न हो बुखार दिमाग तक जा पहुंचा है. लेकिन टॉर्च बंद करने की झस अब और न थी. रोशनी का रुख सीलिंग की ओर कर के अपने सिरहाने रख लिया.

धड़! धड़! धड़! धड़!

"क...कौन है?"

"मैं नितिन. पंकज आया क्या?"

क्या जवाब दूँ? कौन नितिन? कौन पंकज? उसने सोचा

"लेकिन मुझे पता चला कि वो अंदर आया है" - बाहर से आवाज़ आई

लेकिन मैंने तो कुछ बोला ही नहीं! बाहर वाला ऐसे क्यों बात कर रहा है जैसे मेरी किसी बात का जवाब दे रहा हो! क्या सच में मैंने कुछ नहीं बोला?

"अगर वो आए तो दरवाज़ा मत खोलना और अंदर आने की रजामंदी तो क़तई मत देना"

अबकी हिम्मत कर के उसने पूछा - "क्यूँ?"

"क्योंकि वो एक वहम है"

"वहम है?"

"हाँ वहम. बस इतना ध्यान रखना कि अंदर आने को मत कहना."

फिर बस मेन गेट बंद होने की आवाज़ सुनाई दी. लगता था कि शख्स अब जा चुका था. नीलेश ने मोबाइल उठाया. नेटवर्क नहीं था. मन हुआ कि गाने लगा ले कि थोड़ा मन भटके. लेकिन बैटरी! ऐसे ही लेटे-लेटे आधा घंटा बीत गया.

टीं! टीं!

मोबाइल की बैटरी ने दम तोड़ दिया. चंद मिनिटों बाद अपनी कंपनी का लोगो दिखाते हुए मोबाइल भी स्विच ऑफ हो गया. एक बार फिर से वही अंधेरा. सारी जिम्मेदारे जैसे यकायक कानों ने संभाल ली. वो लेटा-लेटा गौर से कुछ सुनने की कोशिश करने लगा. तिरपाल की आवाज़ के सिवाय कोई आवाज़ तो नहीं आती थी. फिर एक पल लगा कि कोई आहट हुई क्या! अगले पल लगा कि भ्रम था. उसके अगले पल दुविधा कि सच में भ्रम ही था कि भ्रम का भी भ्रम हो रहा था. फिर अगले पल दोबारा कोई और आहट जान पड़ती. ये सिलसिला काफी देर यूं ही चलता रहा. तभी एक ज़ोर की आवाज़ हुई कोने वाली कुर्सी के गिरने की. कुर्सी का एक पाया नहीं था इस करके उसे कोने में रख छोड़ा था ताकि कोई उस पर बैठ न जाये. कोई कुर्सी पर बैठ रहा था क्या! सारी हिम्मत बटोर के वो तेजी से कमरे के बाहर निकाल आया. कुछ देर वहीं खड़ा रहा. सांस तेज चल रही थी. इतनी तेज़ कि तिरपाल की आवाज़ भी धीमी लग रही थी उसके आगे. कहाँ जाऊँ? चलो किसी दोस्त के रूम चलता हूँ. लेकिन चप्पल! चप्पल के लिए दोबारा धीरे से दरवाज़ा धकेला. ओह! किसी ने दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया! बगैर एक लम्हा वहाँ रुके वो सीधे मेन गेट से बाहर दौड़ आया. चारों तरफ अंधेरा. 102-103 बुखार. ठंड. बारिश. किसी तरह रास्ते का अंदाज़ा ले ले कर अपने एक दोस्त के रूम की ओर चल पड़ा.

सुबह हो चुकी थी. बारिश भी आज चौथे दिन जाकर बंद हो गई थी. नीलेश दोस्तों के साथ दोबारा रूम पर आया. ये क्या! दरवाज़े पर ताला! एक दोस्त के हाथ में एक पन्नी थी जिसमें नीलेश के रात वाले भीगे कपड़े रखे थे. उसने न जाने क्या सोच कर भीगे पैंट की जेबें टटोलीं. चाबी जेब में थी. सब दोस्तों ने ज़ोर से ठहाका लगाया. नीलेश की समझ में ना आया कि क्या जवाब दे. ताला खोल कर सब लोग कमरे के भीतर आए. कुर्सी सीधी खड़ी थी कोने में. मोबाइल देखा. स्विच ऑफ नहीं था. नीलेश बिस्तर पर कंबल ओढ़ के दोबारा लेट गया.

तभी एक दोस्त बोला- "बुखार की वजह से वहम हो गया होगा."


"हाँ, वहम ही तो था" - नीलेश ने जवाब दिया