Sunday, November 22, 2015

ययाति के मिथक - 3

नाव बनाने वाले पश्चिम में समुन्दर किनारे ही व्यापार करते, जबकि लकड़ी के अन्य कारोबारी जंगल के पास ही अपना काम करते थे। पत्थर के कारोबारी भी समन्दर किनारे ही बैठते। झामी को पानी में नीचे ले जाने के लिए उसके चारों ओर पत्थर बांधने पड़ते थे। सारे पत्थर एक वजन के होते ताकि झामी का संतुलन न बिगड़े। बाबा बताते थे कि प्रयाद में कुछ लोगों ने हवा में उड़ने वाली झामी भी बनाई है। मैंने बाबा से पूछा कि हवा में उड़ती झामी से क्या फायदा? अाकाश में तो नीप मिलते नहीं। बाबा हंस दिये। गाँव के दक्षिण में मूर्तिकार बैठते। मेरी सबसे पसंदीदा जगह मूर्ति बाज़ार ही थी। पत्थरों, लकड़ियों और नीपों की मूर्तियाँ, खिलौने, गहने बनते थे। बाबा जब मंधारा जाते मैं मूर्ति बाज़ार निकल लेता। ठक-ठक ठुन-ठुन की आवाज़ें पूरे माहौल में तैरतीं और उन आवाज़ों के बीच से आकृतियाँ उभरतीं दिखतीं। उन आकृतियों से पता चलता कितना कुछ है जो अव्यक्त है। अव्यक्त को व्यक्त करते मूर्तिकार दो दलों में थे। कुछ मूर्तिकार पारम्परिक मूर्तियाँ बनाते। इनमें देवी-देवताओं की मूर्तियाँ होतीं, बच्चों के खिलौने होते और होतीं तस्वीरें। अक्सर ही राजा महाराजा अपनी तस्वीरें भेजते और उन तस्वीरों को देख कर मूर्तिकार मूर्ति बनाते। बाज़ार में कुछ चित्रकार भी अपना काम करते थे। अक्सर लोग अपनी या अपने बच्चों की मूर्तियाँ बनवाते तो चित्रकार से चित्र ले कर मूर्तिकार को दे देते। अगली बार जब वे आते तो अपनी मूर्ति उठा लेते। मूर्ति बनवाने वाला कोई राजा महाराजा हो तो प्रान्त उनके राज्य तक मूर्ति भिजवा देता। जो दूसरा दल था वह मूर्तिकला को पवित्र मानता था और मांग आधारित काम करना कला का अपमान समझता था। मेरा भाई इसी दल में उठा बैठा करता। भाई को मूर्तिकला का बहुत शौक था। उसका नाम था प्रहस्त।

मेरी माँ का नाम बाणी था। बहुत वर्ष पहले की बात है, जब माँ की शादी नहीं हुई थी। वह लकड़ा-बाज़ार से मूर्तिकारी सीखने रोज़ मूर्ति-बाज़ार आया करती। उस समय पराश से खोजियों का एक दल आया था। उन्होंने समन्दर किनारे ही डेरा डाला था। जीवाल मछली के बारे में बहुत पड़ताल करते। बहुत कुछ लिखा करते। नीपों के बारे में भी बहुत खोज करते। उस दल में एक लड़का था- इक्षानु। इक्षानु को भी मूर्तिकला का शौक था। इत्तफ़ाक से दोनों एक ही प्रशिक्षक के अधीन कलाकारी सीखने पहँचे। छैनी-हथौड़ी की ठक-ठक ठुन-ठुन और उन आवाज़ों के बीच उभरती ढेरों आकृतियाँ। वे दोनों ही बहुत प्रतिभाशाली थे। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उनके प्रशिक्षक ने उन्हें अपनी ही दुकान पर काम दे दिया। लेकिन इक्षानु ख़ुश नहीं था। उसका मानना था कि ‘बहुत सी चीज़ों की मूर्तियाँ नहीं बनाई जा रहीं। हम लोग सिर्फ देख सकने वाली चीज़ों की मूर्तियाँ बना रहे हैं। जो चीज़ें हम देख नहीं पाते, सिर्फ महसूस करते हैं या सिर्फ सोचते हैं उन्हें भी मूर्तिकला में जगह मिलना ज़रूरी है। आप मन में उठती किसी पुरानी टीस को मूर्ति में कैसे उतारेंगे? प्रेम को कैसे मूर्त रूप में उतारेंगे? इन बातों पर भी विचार होना चाहिये।’ पुराने मूर्तिकार उसकी बातों को अनसुना करते। कुछेक नए मूर्तिकार ज़रूर उसकी बातें सुनते। 

कुछ समय बाद उसका खोजी दल भी चला गया लेकिन इक्षानु अक्षज में ही रह गया। उसने अपना एक नया दल भी बनाया जो सिर्फ कला में नए प्रयोग के लिए मूर्ति बनाते। बाणी उनके दल की प्रमुख मूर्तिकार हो गई। उन लोगों ने कुछ मूर्तियाँ बनाईं भी जो ठीक ठाक दामों में बिकीं। इसी बीच बाणी ने एक नई कला का आविष्कार किया। पेड़ की छाल पे गोंद से चित्र बना कर उस पर रंगोली फेंकी जाती। गोंद की वजह से रंगोली चिपक जाती। इस तरह की चित्रकारी की सबसे खास बात होती उस पर उभरे रंगों का खुरदुरापन। बाणी की इस कला को कई लोगों ने सराहा। प्रान्त ने भी नमूने के तौर पर कई चित्र रख लिए। हालांकि काफी समय तक उस कला को मंज़ूरी मिली नहीं थी। लेकिन इन सब गतिविधियों के बीच बाणी और इक्षानु भी करीब अा गए। एक दिन पराश से एक आदमी आया जिसके साथ कुछ दिनों का बता कर इक्षानु पराश चला गया। उसके जाने के महीने भर बाद ही बाणी को पता चल गया कि वह गर्भवती है। जब बहुत दिनों तक इक्षानु न आया तो प्रान्त में उसे ढूंढने की शिकायत दर्ज़ करवाई। समय बीतता गया पर न तो इक्षानु कभी लौट कर आया ना ही उसका कहीं कुछ पता चला। इधर बाणी ने एक लड़के को जन्म दिया जिसका नाम उसने रखा प्रहस्त। बाणी ने अपने पिता का घर छोड़ कर मूर्ति बाज़ार के पास ही घर ले लिया। अपने बेटे के साथ वह वहीं रहने लगी। हालांकि इक्षानु का ज़रूर कहीं अता-पता नहीं था पर उसका दल लगातार बढ़ रहा था। बहुत से नए लोग इक्षानु की अमूर्त्य कला में रुचि रखते। काफी समय दल की कमान संभालने के बाद बाणी ने वह दल छोड़ दिया। कला की साधना से कहीं ज़्यादा ज़रूरी रोज़ी-रोटी हो चली थी। नई कला हालांकि पनप रही थी पर उसमें उतनी कमाई न थी। उसके जाने के बाद मताली नाम के एक शख़्स ने दल की कमान संभाली।

प्रहस्त बचपन से ही अन्तर्मुखी था। अपनी उम्र के बच्चों के संग भी न खेलता। उसकी दुनिया उसकी माँ ही थी। जब वह काम पर जाती तो वह भी संग जाता। बचपन से ही मूर्तियाँ बनते देखना उसे बहुत अच्छा लगता। माँ ने उसे छैनी-हथौड़ी भी पकड़ा दिये। अब ठक-ठक ठुन-ठुन की आवाज़ें उस तीन साल के बच्चे के हाथों से भी चलने लगीं और उन आवाज़ों ने धीरे-धीरे सबको बता दिया ये बच्चा एक दिन नाम्बी का सबसे बड़ा मूर्तिकार बनेगा। उसकी बनाई मूर्तियों में इतनी सफाई होती कि बड़े-बड़े मूर्तिकार भी वाह किये बिना न रह पाते। धीरे-धीरे बाणी उसे पिता इक्षानु के बारे में भी बताने लगी। जिस तरह उसके हाथ बेदाग़ मूर्तियाँ गढ़ते, उसके मन ने भी अपने पिता की ऐसी ही एक छवि गढ़ ली थी - बेदाग़। वह उसे इक्षानु की कलाकृतियाँ भी दिखाने लगी। धीरे-धीरे वह भी अमूर्त्यता की ओर आकर्षित होने लगा। कला में अपने पिता को ही अपना आदर्श मानने लगा। पहले-पहल सममित आकृतियाँ बनाता। धीरे-धीरे अमूर्त्य कलाकृतियों में भी रुचि लेने लगा। उन्हें वह अमूर्तियाँ कहता और। उसने बाणी की रंगोली और छाल की विधा को मूर्तिकला से जोड़ा। पहले अमूर्त्य आकृतियाँ लकड़ी या पत्थर पर कुरेदता। फिर उनके कुछ हिस्सों में गोन्द लगाकर रंगोली उड़ेलता। शुरुआत में लोगों में वे खुरदुरी, रंगीन और अमूर्त्य मूर्तियाँ इतनी लोकप्रिय नहीं हुईं। लेकिन कालान्तर में वैसी मूर्तियों की भी भारी मांग आने लगी। बचपन से ही वह अपने समय से थोड़ा आगे था। 

धीरे-धीरे समय उन ठक-ठक ठुन-ठुन की धाराओं में बहता चला गया। प्रहस्त नौ बरस का हो गया। एक दिन बाणी ने उससे कहा - “क्यों नहीं अब तुम नीपों की मूर्तियाँ बनाते”।

नीपों की मूर्तियाँ बनाने के लिए हाथ बहुत सधा होना चाहिये। नीप लकड़ी या पत्थर जितना मजबूत नहीं होता। एक ग़लत चोट से नीप चटक जाता। हालाँकि पहले उसे मजबूती देने के लिए दीलिम नाम के एक घोल मे ज़रूर डाला जाता, लेकिन फिर भी नाज़ुक तो वह था ही। गिरने पर भले ना टूटे पर पर हथौड़ी की चोट अलग होती है। यूँ तो नीप बाज़ार में मिलते थे पर सीखने के लिहाज़ से बाज़ार से खरीदना बहुत महंगा पड़ता, इसलिए लोग किनारे जाकर ख़ुद ही ढूंढ लेते। रात को उनकी चमक की वजह से ढूंढना थोड़ा आसान होता, इसलिए रात को बहुत से लोग नीप ढूंढने आते। हालाँकि किनारे पर उतने सुंदर नीप नहीं मिलते लेकिन सीखने के उद्देश्य से वे ठीक ही होते। बाणी दिन में काम करने जाती और शाम ढलने पर प्रहस्त के साथ किनारे जा पहुँचती। प्रहस्त किनारे रेत में नीप ढूंढता और वह उथले पानी में घुटनों तक धोती चढ़ाए तैरती परछाइयों का पीछा करती। थोड़ी देर बाद दोनों वहीं किनारे पर बैठ जाते और उन परछाइयों में खो जाते। शाम को लोग झुंड बनाकर वहीं किनारे बैठ जाते। गाते, बजाते, नाचते, हँसते। कई सारे अलग-अलग टोले, अलग-अलग टापू, टापुओं के बीच सुलगती आग, धुएं की अमूर्त्य आकृतियाँ, तैरती हुईं, उड़ती हुईं, मिटती हुईं। उन आकृतियों के बीच लोग हाथों में हाथ डाले नाचते। ये सब एक रिवाज़ की तरह ही तो था जो रोज़ परछाइयों के स्वागत के लिए दोहराया जाता। जैसे-जैसे रात आगे बढ़ती, गीतों में भी शान्ति आती जाती। धीरे-धीरे सब कुछ थम सा जाता। लहरों की अावाज़ें। गीतों की आवाज़ें। धीरे-धीरे लोग वहीं लेट भी जाते रेत में और देखते रहते आसमान में नीपों के सरदार को। कुछ आँख बन्द किए यूं ही पड़े रहते। लहरों की तरंगें। गीतों की तरंगें। टकराती रहतीं किनारे पर और उनके शब्द टपकते रहते कानों में। पर वे बस पड़े रहते, बेसुध। वैसा सुकून दुनिया के शायद ही किसी कोने में मिलता हो।

शाम ढलने पर गोताख़ोरों के दल भी किनारे पहुँचते। उन्हें नाव ले कर समन्दर का रुख़ जो करना होता। अन्धेरे में चमकते नीपों से उन्हें अन्दाज़ा लगता कि अगले दिन किस जगह गोता लगाना है। उन दलों में दानिश नाम का एक लड़का भी आया करता था। लम्बा कद, चौड़ा सीना, घुंघराले बाल। बहुत ही खिलंदड़ किस्म का लड़का। दिन भर हर किसी से मज़ाक करता घूमता। अपने दल में सबका चहेता। गोताखोरी में सबसे तेज़। आधे-आधे घंटे गर्वासी के भरोसे पानी में सांस रोके रखता या कभी यूँ ही अकेले निकल पड़ता आधी रात को झामी ले कर। शाम को समन्दर किनारे गाने बजाने में सबसे आगे। देर रात तक रेत पर पड़े रहने वालों में भी सबसे आगे। समन्दर ही उसकी दुनिया थी। वही दानिश इधर कई दिनों से इस औरत को किनारे आते देख रहा था। पहली नज़र का आकर्षण कहें या नीयति, रोज़ शाम उसकी निगाहें उस औरत को ढूंढा करतीं। एक दिन शाम को वह उसके टोले में जा बैठा। आग जली, अमूर्त्य आकृतियाँ भी तैरने लगीं और तभी उसने बाणी को अपने साथ नाचने के लिए इशारा किया। बाणी भी उठ खड़ी हुई। यहीं से दोनों के बीच जान-पहचान बढ़ती चली गई। 


दानिश बाणी से आठ बरस छोटा था। दोनों रोज़ शाम मिलने लगे। दानिश समन्दर से बाणी के लिए नीप ले आता। बाणी प्रहस्त को रेत में नीप ढूंढने को कहती और ख़ुद दानिश के साथ पूरी शाम बातें करती रहती। प्रहस्त को माँ का यह रूप बिलकुल न सुहाता। प्रहस्त के मन में जो छवि इक्षानु की थी, दानिश उसके ठीक उलट था। कहाँ उसका पिता एक दार्शनिक कलाकार कहाँ यह तैराक। ये बात दानिश भी बख़ूबी समझता और बाणी भी। लेकिन दानिश उन लोगों में से नहीं था जो ख़ुद को किसी पर थोपना चाहता हो। और जहाँ तक बाणी का सवाल था तो इक्षानु के जाने के बाद सालों तक तन्हां जीवन बिताते-बिताते वो भी थक चुकी थी। ऐसी ही एक रात जब परछाइयाँ तैर रहीं थीं और किनारे पर टापुओं के बीच सुलगती आग धीरे-धीरे बुझने लगीं थीं और यावी के गीत गाए जा रहे थे और लोग लेटे हुए, बैठे हुए, आँखें खोले हुए, बन्द किए हुए, खोए हुए पड़े थे और प्रहस्त रेत में नीप तलाश कर चुकने के बाद यूं ही किसी टापू पर बैठा था, बाणी और दानिश इन टापुओं से दूर एक दूसरे का हाथ थामे किनारे पर टहलते जा रहे थे। कभी दूर से आती लहरें उनके पैरों से टकरातीं। कभी दूर से अाते यावी गीत उनके कानों से टकराते। धीरे से बाणी ने अपना सिर दानिश के कन्धे पर टिका दिया। दानिश ने भी अपना एक हाथ घुमा कर उसके कन्धे पर रख दिया। धीरे से उसे अपनी बंडी की जेब में हाथ डाला और उसमें से पत्ते की एक छोटी सी पोटली निकाल कर बाणी के हाथों में रख दी। पोटली का मुंह छाल की रस्सी से बन्द था। बाणी ने दानिश का हाथ अपने कन्धे से हटाया और ठिठक कर वहीं खड़ी हो गई। झुकी हुई गर्दन और नज़रें उस बन्द पोटली पर। दानिश ने उसकी ठोड़ी पकड़ कर उसका सिर ऊँचा भी किया पर नज़रें तब भी पोटली पर ही टिकीं थीं। बाणी की आँखों के सामने परछाइयों के बीच इक्षानु का चित्र तैर गया। ठक-ठक ठुन-ठुन की आवाज़ें उसके कानों में पड़ने लगीं। कई सारी अमूर्त्य आकृतियाँ उसे पैरों के समीप की रेत में दिखीं जिन्हें पीछे हटतीं लहरें रगड़-रगड़ कर मिटाने में लगीं थीं। इक्षानु अपना एक घुटना टिका कर उन रेतीली आकृतियों में बैठ गया। बाणी ने टापुओं की ओर देखा। प्रहस्त कहीं दूर धुएं की अमूर्तियाँ बनाता नज़र आया और वे अमूर्तियां हवा में तैरती हुईं। बाणी ने दानिश की ओर देखा। आँखों से दो मोटे-मोटे नीप निकल कर पोटली पर लुढ़क लिए। उसने अपने एक हाथ से रस्सी खींची। पोटली का मुंह खुल गया। भीतर नीप की एक अंगूठी थी। अंगूठी दानिश ने उठा ली। बाणी ने अपना हाथ अागे बढ़ा दिया। दानिश ने अंगूठी पहना दी। आसमान में नीपों का सरदार आ चुका था। ज़मीन पर परछाइयां तैर रहीं थी। कानों में गीत तैर रहे थे। हवा में अमूर्तियाँ तैर रहीं थीं। बाणी और दानिश एक दूसरे की बाहों में समाए थे। लहरें पैरों पर टकरा रहीं थीं और इर्द-गिर्द की अमूर्तियाँ मिटा रहीं थीं और कुछ नई आकृतियाँ बना रहीं थीं।

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