Tuesday, February 17, 2015

जहांआरा




खुद की ही इमारत में 
वो क़ैद होकर रह गया
झाँकता अब किस तरफ
बस कसमसाकर रह गया

तराशा था उसने कभी
मुहब्बतों से इक निशां
आखिरी लम्हों में वो खुद
नफ़रतों से ढह गया

पिंजरे में है उसके लेकिन
खिड़की भी एक छोटी सी
खुद की क़बर से खुद की क़बर को
देखता वो रह गया

कभी देखता बेड़ियों को
कभी जहांआरा को
मेरी बेटी मेरी बेटी
कहता ही वो रह गया
ज़िल्लतें सब सह गया

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