Friday, October 10, 2014

वो औरत

अभी पिछले दिनों मेरे दादी का इंतकाल हुआ। अस्थियाँ विसर्जित करने इलाहाबाद जाना था। घर की महिलाएं भी जाने की तैयारियां कर रहीं थीं। तभी किसी ने कह दिया - "औरतें अस्थि विसर्जन में नहीं जातीं"। हालांकि पहले हमारे ही घर में औरतें अस्थि विसर्जन में जा चुकीं थीं, लेकिन अक्सर ही पुरुष अपनी मर्ज़ी से औरतों के लिए नियम बना दिया करते हैं। खास तौर से प्रतिबंधित करने वाले। लेकिन मुझे देख कर खुशी हुई कि घर की औरतों ने अपना पक्ष रखा कि पहले जब हम जा चुके हैं तो अचानक ये नियम कैसा? और अपने माँ की अस्थि विसर्जन करने ही तो जा रहे हैं इसमें गलत क्या है? परिणाम स्वरूप घर के बड़े लोगों ने आपसी बातचीत में उनकी बात मान ली और तय हुआ कि सभी लोग चलते हैं। तीन गाडियाँ की गईं और सब लोग चल दिये।

हम लोग कटनी (म॰प्र॰) से इलाहाबाद जा रहे थे। ये घटना मैहर से कुछ दूरी पहले हुई। ड्राइवर ने गाड़ी धीमी की। हम सब लोग बाहर को देखने लगे। सड़क पर ढेर सारे वाहन पहले से ही रुके खड़े थे। ड्राइवर बोला -"लगता है चक्का जाम है आगे।" हम लोग उत्सुकता से देखने लगे। देखा तो सड़क के बीचों बीच बड़े बड़े पत्थर रख कर के रास्ता रोका गया था। सड़क के बीचों बीच एक आदमी पड़ा था और औरत उसके बाजू में बैठी रो रही थी। उसके चेहरे से ही गरीबी दिखाई दे रही थी। शायद गाँव के दलित आदिवासी थे। उनके चारों ओर कई सारे आदमी भी खड़े थे। दूसरी कई गाडियाँ भी चक्के जाम में फंसी हुईं थीं। उन में से कई लोगों को शायद जल्दी भी थी। कई लोग झल्लाए हुए भी थे। ड्राइवर ने काँच खोला। एक आदमी बताने लगा- "दारू पी के झगड़ा कर रहा था। पड़ोसी ने मार दिया। अब मर गया तो औरत ने सड़क जाम कर के रखी है। साले मादरचोद पहले तो दंगा करते हैं फिर पब्लिक को परेशान करते हैं। अरे जाओ यहाँ से, शमशान ले के जाओ उसे, यहाँ रोड में पड़े रहने से क्या मिलेगा।"

मैं भी गाड़ी से उतर आया। अचानक औरत ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। कोई बोला-"अभी शांत बैठी थी अभी रोने लगी। सब ड्रामा है मादरचोदों का।" तभी देखा कि आदमी हिल डुल रहा था। कोई बोला-"जिंदा है। मैं न कहता था ड्रामा कर रहे हैं साले।" मैं थोड़ा नर्वस भी था। कई बार ख़बरों में पढ़ा है कि चक्का जाम करने वाले हिंसक भी हो जाते हैं, तोड़ फोड़ भी करने लगते हैं। फिर हमारी गाड़ी तो ड्राइवर साहब ने सबसे आगे लगा रखी थी। धीरे धीरे मैं आगे बढ़ा और उस भीड़ का हिस्सा बन गया तो उनके चारों ओर खड़ी थी। कुछ गाँव के भी लोग थे। कुछ लोग नेतागिरी भी कर रहे थे। एक शख्स मुझे याद है जो नीले टाइप का सफारी सूट पहने था। पान से होंठ लाल थे और तिलक भी लगाए था। बुदबुदा बुदबुदा कर उस औरत और आदमी को निर्देश दे रहा था - "अभी ज्यादा न रो। अभी डीएम साहब नहीं आए और सुन रे ज्यादा हिल डुल ना।"

तभी कुछ पुलिस वाले आ गए। जहां तक मुझे याद है कोई महिला पुलिस नहीं थी और कोई नारेबाजी भी नहीं हो रही थी। सफारी सूट धीरे से बुदबुदाया - "टीआई आया है। अभी नहीं हटना जब तक डीएम न आ जाये।" इतना कह कर वो थोड़ा पीछे हो लिया। पुलिस वाले ने पूछा - "क्या बात है? चलो हम आ गए हैं अभी बताओ क्या हुआ और रास्ता छोड़ो।" सफारी सूट शायद इसी बात का इंतज़ार कर रहा था। तुरंत सामने आया -"जब तक डीएम साहब न आएंगे रास्ता नहीं खुलेगा।" पुलिस वाला सफारी सूट को नज़रअंदाज़ करते हुए फिर औरत से बोला - "क्या हुआ? पहले रास्ता छोड़ो फिर बात करते हैं।" औरत दहाड़े मार मार के रोने लगी। हालांकि मुझे मामला अभी तक पता नहीं था लेकिन औरत के रोने में बनावट नहीं लग रही थी। ऐसा लगा की किसी बात पर वो वाकई में भीतर तक दुखी थी। सफारी सूट बताने लगा- "इनकी बच्ची को एक आदमी भगा ले गया। हरियाणा का आदमी पता नहीं कहाँ ले गया। यहाँ की लड़कियों को भागा ले जाते हैं और बताते हैं की कई कई दिन तक पानी तक नहीं मिलता। ये बोलते हैं किसी जंगल में ले जाते हैं। फिर बेच देते हैं यहाँ की बच्चियों को। कई बार थाने गए पर कोई सुनवाई नहीं हुई। तीन दिन से आदमी परेशान है। खाना भी नहीं खाया। तबीयत खराब हो गई तो औरत क्या करे? अब जब तक डीएम साहब न आएंगे चक्का जाम नहीं हटेगा।" औरत रोये जा रही थी। एक आदमी, जो भी मेरे साथ खड़ा था, मुझसे बोला- "अब लड़की भाग गई तो हम लोग क्या करें? हमारा काहे रास्ता रोके हो? अपनी लड़की संभालती  नहीं और अब जब भाग गई तो हमारा रास्ता रोके हैं। हम क्या कर लेंगे?" मैंने उस से बहस करना ठीक नहीं समझा। नाबालिग लड़की को भगाना और अगवा करना एक ही बात है। लड़की को धोखे से अगवा किया गया था।

इतने में डीएम की गाड़ी आ कर रुकी। औरत और ज़ोर से रोने लगी। सफारी सूट फिर बुदबुदाया- "अभी डीएम साहब आ गए हैं। अभी ज्यादा नौटंकी न करना। हम बात करते हैं।" फिर उसने अपने साथ के सभी लोगों को ज़ोर से आवाज़ दी -"चलो रास्ता खोलो रे।" पत्थर हटने लगे। गाडियाँ साइड से मिली जगह से निकालने लगीं। औरत और आदमी अब भी रोड पर ही थे। हमारे ड्राइवर ने भी गाड़ी स्टार्ट की और निकालने लगा। मैं भी वापस उसमें बैठ गया। तभी मेरे ताऊजी ने कहा- "हरियाणा में लोग लड़कियों को पैदा होते ही मार डालते हैं। अब वहाँ लड़कियां काफी कम हैं। जब उनको शादी के लिए लड़कियां ही नहीं मिलतीं तो कई लोग दूसरी जगहों से लड़कियां ले जा के वहाँ जबरन शादियाँ करवाते हैं।" तभी ताईजी बोलीं- "अरे! पैसे वैसे नहीं मिले होंगे सोई ये ड्रामा है। ये लोग अपनी लड़कियों को बेच देते हैं ना!" मन में तो आया कि कहूँ जो अगर पैसों के लिए किसी को अपनी बच्ची बेचना पड़ रहा है यही क्या कम ज़ुल्म है? फिर मुझे उस औरत का चेहरा याद आया जो गाड़ियों की धूल में अब तक ओझल हो चुका था। वे आँसू नकली कतई नहीं थे। मैंने ताईजी से इतना ही कहा- "सभी लोग थोड़े ही बेचते होंगे। कुछ लड़कियां कभी अगवा भी तो की जा सकतीं हैं।"

...और इसके बाद हम में से किसी ने इस बारे में बात नहीं की। बहुत देर से गाड़ी बंद होने से भीतर गर्मी काफी बढ़ चुकी थी। ड्राइवर ने एसी ऑन कर दिया।




PS:
मुझे नहीं मालूम फिर क्या हुआ? पुलिस ने कोई कार्रवाई की या नहीं। लेकिन मैंने बाद में इंटरनेट पर इस बाबत गूगल किया:

http://www.dnaindia.com/india/report-sex-ratio-in-haryana-worst-among-all-states-1829031

http://timesofindia.indiatimes.com/city/gurgaon/UN-report-highlights-grim-scenario-of-child-trafficking-in-Haryana/articleshow/20995848.cms


Saturday, October 4, 2014

प्रतिनिधि कहानियाँ - अखिलेश



प्रतिनिधि कहानियाँ - अखिलेश। जब मैंने इस पुस्तक का पिछला कवर देखा तो वहाँ पुस्तक के अंदर दी गयी मनोज कुमार पाण्डेय जी की भूमिका का अंश दिया था। मनोज जी लिखते हैं की अखिलेश की कहानिया 'बातूनी' कहानियाँ होती हैं। वाकई, बात एक दम सच है। इतनी लंबी कहानियाँ कि आप पढ़ते पढ़ते खो जाते हैं एक अलग ही लोक में। उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे मेरे एक दोस्त के बाबूजी याद आ गए। अपने ग्रेजुएशन के हम दोस्त लोगों की मंडली हमारे ही एक मित्र के ढाबे पे जाया करती थी खाना खाने। उनके बाबूजी दिन भर के आने जाने वालों से इतना हाल चाल लिया करते थे कि कोई उनसे बात करने बैठ भर जाये, उनके पास मसाले की कभी कमी नहीं होगी। अखिलेश की कहानियाँ भी वैसी ही हैं। कहानियाँ कम और चउरा ज़्यादा। लेकिन ये कहानियाँ बड़ी ईमानदार हैं। अखिलेश उन लेखकों में से हैं जो अपनी कहानियों में नाहक गंभीरता नहीं घुसेडते। कहने का अर्थ ये नहीं कि कहानियों में गंभीरता का अभाव है बल्कि ये कि कहानियाँ किसी आडंबर में नहीं फँसती। ऐसा लगता है कि कहानी शुरू हुई और साथ ही दुनिया जहान की पंचायत भी। जैसे दीवाली का कोई अनार। एक स्रोत से न जाने सितारे एक साथ, ठीक वैसे ही। कहानियाँ बाहर की ओर खुलती हैं और पाठक बड़ी आसानी से उनमें जा सकता है। कहीं कहीं कहानियों में चुहलबाजी भी है जो गुदगुदाती भी है। इन सब खूबियों के बावजूद कहानियाँ यथार्थवादी हैं।

पुस्तक में 6 कहानियाँ हैं। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में 204 पृष्ठ हैं और इसका मूल्य 59 रूपये है। किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं।