Friday, June 20, 2014

…तभी तो प्रेम ईश्वर के क़रीब है



प्रेम क्या है? इसकी परिभाषा देना जितना मुश्किल है अनुभव करना उतना ही आसान - सिर्फ एक संवेदनशील मन की ज़रुरत है बस, और कुछ नहीं। एक कलाकार प्रेम की इस अनुभूति को आकार देने की कोशिश करता है। चित्रकार अपने चित्र में, मूर्तिकार अपनी मूर्ति में और कवि अपने शब्दों में। "…तभी तो प्रेम ईश्वर के क़रीब है" उत्तमी केशरी जी के द्वारा रचित कविता संग्रह इस कोशिश में सौ प्रतिशत सफल है। प्रकाशक विजया बुक्स, दिल्ली के द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक १५० पन्नों की है। हार्ड कवर वाली इस पुस्तक में कुल १५० कविताएं हैं। सभी कविताएं नयी कविताएं हैं। पुस्तक का मूल्य २९५/- रुपये है।

सभी कविताएं दिल को छू लेने वाली हैं। प्रेम के ना ना प्रकार के रूप हैं अथवा उसकी अनुभूति के, इस बात का अन्वेषण करती एक दस्तावेज़ की तरह लगती है यह किताब। प्रेम, प्रेमी-प्रेमिका के दरमियाँ पसरे आयामों को संकुचित करता अपनी उपस्थिति का अहसास कराता है। वियोग में खालीपन का अहसास कराता भी प्रेम है। प्रेम प्रकृति से हो चांदनी का चांदोबा त्वचा के पोरों से रिसता हुआ हीमोग्लोबीन में मिल जाता है और महीन धमनियों और शिराओं से होता हुआ दिल की गहराइयों में अपनी शीतलता छोड़ता है। प्रेम स्वयं से हो तो गौरैया के आँखों की पुतलियों में अपने चहकते अक्स को देख सकते हैं। उत्तमी जी भाषा में एक देसीपन है, एक सोंधापन है। अक्सर ही प्रेम की रूमानियत और रूहानियत को रेखांकित करने के लिए तमाम लेखक-कवि गण उर्दू का सहारा लेते हैं कि उर्दू की नफासत रेडीमेड मिल जाती है। लेकिन उत्तमी जी निहायत ही देसी भाषा का इस्तेमाल करते हुए शब्दों से चित्रकारी करती लगतीं हैं। उनके उपमान दिखाई देते हैं। प्रकृति को बहुत ख़ूबसूरती के साथ दिखाया है। मसलन "जब खिल उठी थी" की ये पंक्तियाँ :


तब
महक उठा था मन
महुआ की सुगंध-सा।
खिल उठे थे
आँगन में गुलदाउदी,
डाहलिया
और
हरसिंगार के कई फूल।


महिलाओं और दलितों के विषय भी बहुत खूबसूरती के साथ रखे हैं।  "एक संकल्प यह भी" की ये पंक्तियाँ :

मटरू मोची की बेटी टुनियाँ
अपने मन में पाले हुए है
एक आकांक्षा सवर्ण-सी।


गाँव की पृष्ठभूमि को इस तरह चित्रित किया है कि आप उसकी छोटी-छोटी बारीकियों को अपने मस्तिष्क की गहराइयों में कैद अतीत को बाहर आता महसूस कर सकते हैं। "जब गाँव याद आता है" की कुछ पंक्तियाँ:


भोर होते ही
प्रभाती गाते थे
सनफूल दादा।
इसलिए कि
धनियां फूआ के आँगन में
फैली तनी पेड़ पर
चहचहाने लगता था
चिड़ियों का झुण्ड।
अलसुबह
माँ कूटने लगती थी
ढेंकी में धान।


इस किताब की मेरी सबसे पसंदीदा कविता है "प्रत्यय", जिसकी कुछ पंक्तियाँ ये हैं :

माँ
जब लेती थी आटा की लोइयाँ
घुमाती थी बेलन से
बनाती आकार गोल-गोल
मानो वह रोटी नहीं
सूरज हो।

कभी माँ,
रोटी बेलती तो
कभी चूल्हे में सूखे जलावन डालती,
फूँक मारती और खाँसती


कुल मिलाकर पुस्तक बहुत ही अच्छी है।


1 comment:

  1. चित्र भी अपने आप में एक बोलती कविता का ही रूप हैं.
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति

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